शिक्षकों की नियुक्ति संबंधी SUPREEM COURT के निर्णय का विधिक विश्लेषण: TET अनिवार्यता के संदर्भ में एक समीक्षात्मक अध्ययन
भारत में प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में गुणवत्ता सुधार हेतु शिक्षक पात्रता परीक्षा (Teacher Eligibility Test - TET) की अनिवार्यता को लेकर हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रदत्त निर्णय ने शिक्षा जगत में व्यापक चर्चा को जन्म दिया है। प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य इस न्यायिक निर्णय की समीक्षात्मक विवेचना करते हुए इसके वैधानिक आधारों एवं व्यावहारिक निहितार्थों का विश्लेषण प्रस्तुत करना है।
अनुसंधान की समस्या एवं परिकल्पना
मुख्य अनुसंधान प्रश्न
सर्वोच्च न्यायालय के दिनांक 01 सितंबर 2025 के निर्णय में TET अधिसूचना पूर्व नियुक्त शिक्षकों के संदर्भ में क्या वास्तव में कोई व्यापक परिवर्तन अपेक्षित है, अथवा यह केवल विद्यमान नीतिगत स्पष्टीकरण का विषय है?
परिकल्पना
प्रारंभिक अध्ययन के आधार पर यह परिकल्पना प्रस्तुत की जा सकती है कि वर्तमान न्यायिक निर्णय में मूलभूत नीतिगत परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है, अपितु केवल दिनांक 23 अगस्त 2010 की अधिसूचना के पैराग्राफ 4 की संपूर्ण व्याख्या की आवश्यकता है।
साहित्य समीक्षा एवं वैधानिक पृष्ठभूमि
शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009: प्रारंभिक उपबंध
दिनांक 26 अगस्त 2009 को लागू शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE Act) की धारा 23(2) में यह महत्वपूर्ण उपबंध था कि राज्य सरकारों को प्रशिक्षण केंद्रों के अभाव की स्थिति में न्यूनतम योग्यता पूर्ति हेतु पांच वर्ष तक की छूट प्रदान की गई थी। यह उपबंध तत्कालीन शैक्षिक अवसंरचना की कमी को दृष्टिगत रखते हुए एक व्यावहारिक समाधान के रूप में स्थापित किया गया था।
अधिनियम में संशोधन: 2017
दिनांक 09 अगस्त 2017 को RTE अधिनियम में पुनः संशोधन के माध्यम से उक्त छूट की अवधि को चार वर्ष तक विस्तारित किया गया। यह संशोधन शिक्षक प्रशिक्षण व्यवस्था के क्रमिक विकास की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किया गया था। इसके अतिरिक्त कोई और महत्वपूर्ण संशोधन नहीं हुआ था।
केंद्रीय अधिसूचनाओं का विश्लेषण
23 अगस्त 2010 की अधिसूचना
इस महत्वपूर्ण अधिसूचना में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया था कि उक्त तिथि से पूर्व नियुक्त शिक्षकगण TET परीक्षा से छूट के पात्र होंगे। यह अधिसूचना वर्तमान विवाद के केंद्र में स्थित है तथा इसकी संपूर्ण व्याख्या आवश्यक है।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय का पत्राचार (8 नवंबर 2012)
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा राज्य सरकारों को प्रेषित पत्र में यह स्पष्ट किया गया था कि भविष्य में होने वाली नई नियुक्तियों में TET से छूट प्रदान नहीं की जाएगी। साथ ही न्यूनतम योग्यता, विशेषकर प्रशिक्षण संबंधी आवश्यकताओं को 31 मार्च 2015 तक जारी रखने का निर्देश दिया गया था।
न्यायिक निर्णय का समालोचनात्मक विश्लेषण
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय (01 सितंबर 2025)
प्रस्तुत निर्णय में मुख्य त्रुटि यह प्रतीत होती है कि 23 अगस्त 2010 की अधिसूचना के पैराग्राफ 4 को संपूर्णता में न लेकर आंशिक रूप से विचारित किया गया है। न्यायालय के निर्णय के पैराग्राफ 168 में इस संदर्भ का उल्लेख मिलता है। यह उल्लेखनीय है कि आज तक कभी भी पैराग्राफ 4 को किसी भी न्यायिक निर्णय में गलत साबित नहीं किया गया है।
पूर्व न्यायिक उदाहरण: शिक्षामित्र मामला
दिनांक 25 जुलाई 2017 के शिक्षामित्र समायोजन संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का विश्लेषण इस तथ्य को पुष्ट करता है कि यदि 09 अगस्त 2017 के संशोधन पूर्व न्यूनतम योग्यता में छूट (जिसमें TET भी सम्मिलित था) उपलब्ध थी, तो शिक्षामित्रों का समायोजन निरस्त नहीं होता। यह उदाहरण वर्तमान स्थिति की गलत व्याख्या की संभावना को स्पष्ट करता है।
प्रस्तावित समाधान एवं सुझाव
तत्काल उपाय
1. सूचना का अधिकार (RTI) का उपयोग: प्रभावित शिक्षकों को NCTE से स्पष्टीकरण मांगने हेतु RTI आवेदन प्रस्तुत करना चाहिए। इसमें यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि "मेरी नियुक्ति इस विज्ञापन संख्या के अनुसार इस तिथि को हुई है, क्या मुझे अपनी सेवा को सेवानिवृत्ति तिथि तक करने के लिए TET परीक्षा पास करनी होगी अथवा नहीं।"
2. व्यक्तिगत याचिका: TET अधिसूचना पूर्व नियुक्त शिक्षकों को अपनी राज्य सरकार एवं NCTE को पक्षकार बनाते हुए न्यायालय में याचिका प्रस्तुत करनी चाहिए। इसमें अपने-अपने विज्ञापन को आधार बनाकर चुनौती देनी चाहिए।
3. संगठित कार्यवाही की अनावश्यकता: ज्ञापन आधारित आयोजनों की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह समस्या मुख्यतः न्यायिक व्याख्या की है, नीतिगत परिवर्तन की नहीं।
दीर्घकालिक रणनीति
वर्तमान न्यायिक निर्णय में संशोधन की आवश्यकता सर्वोच्च न्यायालय से ही संभव है। अतः संगठित प्रयासों के माध्यम से पुनर्विचार याचिका की संभावनाओं पर विचार किया जाना आवश्यक है। इसमें मुख्य फोकस 23 अगस्त 2010 की अधिसूचना के पैराग्राफ 4 की संपूर्ण अवलोकन पर होना चाहिए।
निष्कर्ष
प्रस्तुत अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि:
1. वर्तमान न्यायिक निर्णय में मूलभूत नीतिगत परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है
2. 09 अगस्त 2017 के संशोधन को परिवर्तित करने की आवश्यकता नहीं है
3. केवल 23 अगस्त 2010 की अधिसूचना के पैराग्राफ 4 की संपूर्ण व्याख्या आवश्यक है
4. प्रभावित शिक्षकों को अनावश्यक चिंता करने की आवश्यकता नहीं है
5. न्यायालय के निर्णय में केवल आंशिक व्याख्या की त्रुटि प्रतीत होती है, संपूर्ण नीति में परिवर्तन की नहीं
सुझाव
शिक्षक संगठनों को ज्ञापन प्रस्तुति के स्थान पर न्यायिक प्रक्रिया का अवलंबन करना चाहिए तथा वैधानिक उपायों के माध्यम से समस्या का समाधान खोजना चाहिए। प्रत्येक प्रभावित शिक्षक को अपनी व्यक्तिगत स्थिति का आकलन करते हुए उचित न्यायिक उपचार की तलाश करनी चाहिए।
संदर्भ ग्रंथ सूची
- शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009
- केंद्रीय अधिसूचना दिनांक 23 अगस्त 2010
- मानव संसाधन विकास मंत्रालय का पत्र दिनांक 8 नवंबर 2012
- सर्वोच्च न्यायालय के संबंधित निर्णय
- शिक्षामित्र संबंधी सर्वोच्च न्यायालय निर्णय दिनांक 25 जुलाई 2017
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